Tuesday, 3 November 2020

उत्तर संरचनावाद

उत्तर संरचनावाद 20 वी. शदी के अंतराल में हुआ।  इस दौर में फ्रांस में उथल - पुथल, विरोध और पारम्परिक मूल्यों से विचलन देखा जा रहा था।  इसी समय में स्त्रीवाद, पश्चिमी मार्क्सवाद, नकारवाद आदि की प्रवृतियां उदित हो रही थी।  कई संरचनावादी विचारक जैसे - देरिदा , माइकल फूकॉलड (फूको ) और रोला बार्थ धीरे-धीरे संरचनावाद की मान्यता का विरोध करते हुए बताया कि - शब्द और शब्द के अर्थ में कोई भी निश्चित संबंधिक अर्थ नहीं होता।  उन्होंने संरचनावाद कि इस मान्यता का भी विरोध किया कि यह अवधारणा जीवन जगत की व्याख्या कर सकती है।  सन 1966 में अपने लेक्चर व्याख्यान में देरिदा ने बताया कि संरचनावाद में बहुत कमियाँ है।  खास कर के रचना केंन्द्रित निश्चित अर्थ को लेकर उन्होंने बताया कि समय के बदलने के साथ जब मनुष्य के चिंता के केंद्र बहुमुखी हो जायेंगे।  तब यह विचारधारा उनकी व्याख्या नहीं कर पायेगी।  इस तरह उन्होंने व्याख्या के लेखक स्थान पर पाठक केंद्रित दृश्टिकोण कि प्रस्तावना की।  रोला बार्थ भी एक स्थापित संरचनावादी थे।  लेकिन उन्होंने लेखक का अंत घोषित कर दिया (द डेथ ऑफ़  ऑथर -  निबंध ) बताया किसी भी साहित्यिक  पाठ में बहुसंख्य अर्थ होते है।  किसी भी रचना की आर्थिक ढांचे तक पहुंचने के लिए केवल लेखक ही एक प्रमाणिक माध्यम नहीं  हो सकता।  उन्होंने बताया रचना के बाहर अन्य स्त्रोत भी होते है।  जिनसे अर्थ निर्धारित होते है।

     इन विचारकों के द्वारा उत्तर संरचनावाद के कई अन्य प्रस्तावक भी हुए जैसे - डेल्यूज , जूलिया क्रिस्टीवा, गोदरिला, बटलर आदि।  इन सभी विचारकों ने उत्तर संरचनावाद को पाठ विश्लेषण की एक ऐसी विधि के रूप में व्याख्यायित किया जो लेखक के बजाय पाठक केंद्र में लाती है।  उत्तर संरचनावाद अर्थ के अन्यान्य स्त्रोतों जैसे - पाठक , सांस्कृतिक मान्यताएँ इन का विश्लेषण करता है।  ये सभी स्त्रोत और इनसे उपजे हुए अर्थ सतत परिवर्तनशील है और रचना  से निकलने  वाले किसी  भी प्रकार की अंतर्संगति या अंतरसंबंध का दावा नहीं करते।  इसलिए एक रचना की व्याख्या में एक पाठक के समाज या संस्कृति का एक लेखक की समाज की संस्कृति में बराबर योगदान होता है।  उत्तर संरचनावाद की कुछ महत्वपूर्ण स्थापनाएं है। 

1 : स्व: की अवधारणा एक एकांगी अवधारणा नहीं है।  एक व्यक्ति के व्यक्तित्व में कई विरोधी तनावों , विचारों तथा लिंग , जाति , वर्ग  , व्यवसाय का क्रियाशील रूप देखा जा सकता है।  अत: किसी भी रचना का अर्थ पाठक की अपनी स्व: की अवधारणा पर निर्भर करता है। 

2: लेखक का अभिप्रेत अर्थ पाठक द्वारा ग्रहण किए गए अर्थ से गौड़ होता है और किसी भी रचना का कोई एक निश्चित उद्देश्य या अर्थ नहीं होता। 

3: किसी भी रचना की व्याख्या करने के लिए किसी भी रचना की बहु - आयामी व्याख्या करने के लिए विविध सन्दर्भों का इस्तेमाल किया जाना अनिवार्य है। 

जो किसी भी रचना की व्याख्या के  लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है। 


Saturday, 17 October 2020

उपन्यास (Novel)


उपन्यास का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है, उप यानि समीप न्यास यानि रखना अर्थात समीप रखना या मनुष्य के निकट रखी हुई वस्तु या वह वस्तु या कृति जिसको पढ़कर लगे की वह हमारी ही है , उपन्यास में मानव जीवन अपेक्षातर अधिक समीपता के साथ चित्रित होता है।  न्यू इंग्लिश डिशनरी में नॉवल की परिभाषा इस प्रकार दी गई है। "नॉवल वह विस्तृत गद्यात्मक आख्यान प्रधान रचना है, जिसमे वास्तविक जीवन की घटनाओं का अनुकरण और पात्रों का एक व्यवस्थित कथावस्तु के रूप में वर्णन रहता है।" वस्तुत: उपन्यास आधुनिक जीवन का गद्यात्मक महाकाव्य है, जीवन की जटिलता और अंतर विरोध को जितनी समग्रता से उपन्यासों में चित्रित किया जा सकता है।  उतनी समग्रता से किसी अन्य साहित्यिक विधा में नहीं।  सामान्यत: सामाजिक संरचना की एक समानान्तरता उपन्यासों में दिखाई पड़ती है।  यही कारण है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए मुख्यत: उपन्यासों का  ही चुनाव किया जाता है।  
      मुंशी प्रेमचंद उपन्यास को वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा मानते है, उनके अनुसार "मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना  ही उन्यास का मूल तत्व है। " डॉ. गोपाल राय यूरोप में उपन्यासों की रचना के लिए औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न पूँजीवाद और मध्यवर्गीय पाठक चेतना को उत्तरदायी माना जाता है।  भारत में इस प्रकार की परिस्थितियाँ औपनिवेशिक शासन के बाद निर्मित हुई। भारतीय नवजागरण से हिंदी उपन्यास के विकास का गहरा सम्बन्ध है चूँकि बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में हिंदी नवजागरण की प्रक्रिया कुछ बाद में आरम्भ हुई इसीलिए हिंदी उपन्यास का विकास भी बांग्ला और मराठी के कुछ बाद में हुआ।  हिंदी में नॉवल के अर्थ में उपन्यास शब्द का प्रयोग 1875 ई. में पंडित बालकृष्ण भट्ट ने किया था, जबकि बांग्ला में नॉवेल के अर्थ में उपन्यास शब्द का पहला प्रयोग भूदेव मुखोपाद्याय 1862  ई. में किया था।  


       आरम्भिक हिंदी उपन्यास या प्रेमचन्द पूर्व हिंदी उपन्यासों का समय 1877 - 1918 ई. तक माना जा सकता है।  1877 ई. में श्रद्धा राम फुलोरी ने भाग्यवती नामक सामाजिक उपन्यास लिखा था।  यह भले ही अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास न हो किन्तु विषय- वस्तु के आधार पर इसे हिंदी का प्रथम आधुनिक उपन्यास है।  पंडित गोबिंद  दत्त की रचना 'देवरानी- जेठानी' भी एक शिक्षा प्रधान उपदेशात्मक रचना है।  जिसका प्रकाशन 1870 ई. में हुआ था।  किन्तु इसे उपन्यास कहने में आलोचकों ने संकोच किया है।  दरअसल लाला श्रीनिवास दास का अंग्रेजी ढंग का नॉवेल 'परीक्षा गुरु (1882)' और श्रद्धा राम फुलोरी का 'भाग्यवती ' ही हिंदी के आरम्भिक उपन्यासों के रूप में रेखांकित किए जाते है।   


        आलोचकों ने उपन्यास के छः तत्व माने है : कथानक ,चरित्र  या पात्र , संवाद, देशकाल , शैली और उद्देश्य।  कुछ आलोचक घटना को भी एक तत्व मानते है किन्तु इसे कथानक के भीतर समेटा जा सकता है।  उपयुक्त तत्व एक - दूसरे पर निर्भर है और एक - दूसरे की सहायता करते है।  हम उपन्यास में अपेक्षा करते है।  उपन्यास के कथा-  वस्तु, विविध प्रसंग या घटनाएं एक सूत्र में इस प्रकार पिरोयी गई हो कि वे अलग - अलग न लगे।  प्रेमचंद के पूर्व लिखे गए मौलिक उपन्यासों को 5  श्रेणियों में बाँट सकते है - सामाजिक उपन्यास , ऐय्यारी , जासूसी उपन्यास , ऐतिहासिक उपन्यास , भाव प्रधान उपन्यास ।  प्रेमचंद को आधार बनाकर हम हिंदी उपन्यास को सुविधा कि दृष्टि से इस प्रकार विभाजित कर सकते है - प्रेमचंद पूर्व उपन्यास, प्रेमचंदयुगीन उपन्यास , प्रेमचंदोत्तर उपन्यास , स्वतंत्रोत्तर उपन्यास , साठोत्तरी उपन्यास।  वर्तमान में उपन्यासों का वर्गीकरण दलित चेतना और स्त्री विमर्श में किया गया है।  


      सारांशतः ज्यों-ज्यों जीवन जटिल और समाज कि विनिमय प्रणाली अमूर्त होती जाएगी।  त्यों - त्यों उपन्यास ककी आवश्यकता बढ़ती जाएगी।  क्योंकि लुकाच के शब्दों उपन्यास गिरावट से भ्र्ष्ट समाज में मूल्यों कि तलाश का एक सृजनात्मक प्रयास है।  

Saturday, 15 August 2020

INDIA’S PROGRESS SINCE INDEPENDENCE

 INDIA’S PROGRESS SINCE
 INDEPENDENCE


After much struggle and having many demonstrations, 
we were lucky enough to become free from the British yoke in 1947. At that time, India was looming under a high economic stress and a lot of complicated problems had opened their mouth. Five year plans came into operation. State wise planning was initiated in order to combat the problems.

   People were ignorant and illiterate. They were quite indifferent towards education. Schools, colleges and other professional institution were very few. Poverty had encompassed in and lack of interest had kept the children illiterate. Now a great transformation has occurred. We have multiple schools, colleges and universities at our help where crores of students widen their mental horizons. Our genius personalities are in great demand in many foreign countries and in this way India has earned her own name and fame.

     In the field of agriculture and food grains we have become self-sufficient
and rather than we export wheat and sugar to some countries.Certain commodities of cash crops are in great demand. Green irrigation has improved considerably. Many dams have been construed which supply electricity and the same is used for tube wells ,houses and industries.

    As far as means of communications and transportation are concerned, India has the largest rail-road linkage. From Kashmir to Kanyakumari and from Assam to Gujarat we have the best mode of transportation.

    In order to uplift the backward classes, plans and schemes have been initiated in all the states. People are enjoying maximum benefits. Per capital and national income has increased. May God help India in shining her name and fame round the world and prove her worth as an angel of peace.

 


Sunday, 9 August 2020

Experience of Attending New School

 Experience of Attending New School

Life is full of new events, challenges and various outcomes. Going to attend a new school is somewhat thrilling because the atmosphere is quite different. When I stepped to a new school with my parents I was mystified on seeing its huge building with long saplings and trees on all sides. It gave me a surge of relief and rest and I thought and thanked my stars to have come to ‘Shantiniketan’. Religious sermons and mottoes along with the portraits of religious as well as world fame personalities were making the environment more lively and congenial. On seeing the result and achievement boards, my heart started throbbing and took and instant version for admission in the school. The mysterious cleanliness was making it a point that specific attention was being paid towards it.

  In the midst of these ideas we approached the Principal’s office. On seeing my ranking position in Xth , He crosses questioned some points and I was able to come to his expectations. He asked for choicest stream of education. Keeping in my choice and the changing trends in education, the principal gave me an admission in computer stream along with the science subjects. My parents thanked me for the best choice. Depositing the dues I went to my classroom and took my seat. After a few minutes, a teacher entered and wrote my name in the register. He passed a few funny remarks.  As the recess bell rang, we rushed out of the classroom. In between I made a few friends who accompanied me to the canteen. We all cracked jokes. They even took me round the whole school building. As the bell rang, we were again in the classroom. Four teachers attended their periods but two taught us. At 12:30 the last bell rang, I returned home in high spirits and I was happy for my admission in the school.

Friday, 12 June 2020

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी कला


  फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी कला


हिंदी कहानी अपनी विकास यात्रा की कई मंजिलें तय कर
चुकी है - इंशा अल्लाह  की कहानी (रानी केतकी की कहानी) से लेकर उदय प्रकाश की (तिरिछ) तक।  अपने प्रारंभिक दौर में ही प्रेमचंद जैसे प्रतिभाशाली कथा शिल्पी मिलें , जिसके कारन हिंदी कहानी एक शिखर तक पहुंची।  प्रेमचंद ने वैविध्यपूर्ण कथा क्षेत्रों का पहली बार उद्घाटन अपनी कहानियों में किया साथ ही शिल्प के अनेक प्रयोग भी किये।  प्रेमचंद के परवर्ती कथाकारों जैनेन्द्र , अज्ञेय , यशपाल आदि ने उसे नए आयाम दिए पर प्रेमचंद की परम्परा से हटकर सूक्ष्म ऐन्द्रिकता  और कलात्मकता के साथ कथाकार हिंदी कहानी के नागरिक जीवन की बारीकियों के उद्धगाता  हुए। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानियों के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को पहली  बार एक नई पहचान और भंगिमा दी।  रेणु , प्रेमचंद , जैनेन्द्र ,अज्ञेय और यशपाल की  पीढ़ी तथा स्वतंत्रोत्तर कथा पीढ़ी जिसे नई कहानी आंदोलन का जन्मदाता कहा  जाता  है  की संद्धिकाल  में  उभरे  कथाकार  है ।  इसीलिए  उनकी  समवयस्कता  कभी   अज्ञेय , कभी  यशपाल के साथ तो  कभी  नई कहानी के कथाकारों  के साथ  घोषित  की जाती  रही  है ।
      रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास  मैला  आँचल  का प्रकाशन  अगस्त  1954 में  था  और इसके  ठीक  10 वर्ष  पूर्व  अगस्त  1944 में  उनकी  पहली कहानी 'बटबाबा'  साप्ताहिक  'विश्वमित्र' कलकत्ता  में छपी  थी ।  यानि  रेणु की कहानी मैला  आँचल  के प्रकाशन  के 10 वर्ष  पहले  से  ही  छपने   लगी  थी । 5वें  दशक  में  उनकी  अनेक  महत्वपूर्ण  कहानियां  प्रकशित  हुई । 'मैला आँचल ' और 'परती - परिकथा' की अपार  लोकप्रियता  और दोनों  उपन्यासों  पर  प्रारम्भ  से  ही  उत्त्पन  विवादों  और बहसों  के बीच  रेणु की कहानियों का अपेक्षित  मूल्यांकन नहीं  हो पाया।रेणु की कहानियां अपनी बुनावट या संरचना स्वभाव यह प्रकृति शिल्प और स्वाद से हिंदी कहानी की परंपरा से एक अलग और नई पहचान लेकर उपस्थित है।  अतः एक नई कथा धारा प्रारंभ इनसे होता है।  रेणु की कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न है।  उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से इसीलिए रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नए सौंदर्य शास्त्र को निर्मित करने की आवश्यकता है। 
        रेणु अपनी कहानियों में स्थानीय रंग को विभूषित करते है।  इसीलिए प्रेमचंद के द्वारा रेशे - रेशे को उकेरा गया भारतीय ग्राम समाज  रेणु  की कलम  से पंचलैट कहानी के प्राणवंत और नए आयाम ग्रहण करता हुआ दिखता है। 
         स्वतंत्रोत्तर हिंदी कहानी के दौर में जिसे नई कहानी  के आंदोलन के नाम से जाना जाता है , ग्राम कथा बनाम नगर कथा को लेकर तीखे विवाद चलें।  रेणु इन तमाम विवादों से परे रहकर  कहानी लिख रहे थे।  इसीलिए उनकी कहानियों की ओर दृष्टि बहुत बाद में गई है।  पहली बार ' कहानी ' पत्रिका के 1956  के विशेषांक में डॉ. नामवर सिंह ने अपने लेख में रेणु का उल्लेख किया।  नामवर  सिंह - "निसंदेह  इन विभिन्न अंचलों और  जनपदों के लोक जीवन को लेकर लिखी  गई कहानियों में ताजगी है।  प्रेमचंद की गांव  पर लिखी कहानियों में एक हद तक  नवीनता थी।फणीश्वरनाथ रेणु , मारकंडे , केशव मिश्र , शिवप्रसाद सिंह की कहानियों से इस दिशा में आशा बनती दिखाई दे रही है।" नई कहानी आंदोलन  के कथाकारों ने बाद में रेणु को श्रेष्ठ सिद्ध  किया।  वे हैं - राजेंद्र यादव , निर्मल वर्मा , भीष्म साहनी, कमलेश्वर आदि।  रेणु के एक दशक पूर्व साहित्य में आये महत्वपूर्ण कलाकार यशपाल और अज्ञेय ने रेणु को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में रेखांकित किया।  कमलेश्वर ने रेणु की महत्वता को इन शब्दों में प्रतिपादित किया - "बीसवीं सदी का यह संजय रूप , गंध , स्वर , नाद , आकार , और बिम्बों के माध्यम से 'महाभारत ' की सारी वास्तविकता सत्य , घृणा , हिंसा , प्रमाद , आक्रोश और दुर्घटना बयान करता जा रहा है। उसके ऊँचें माथे पर महर्षि वेदव्यास  का आशीष  अंकित  है। " अज्ञेय ने उन्हें 'धरती का धनी' कहा है।  निर्मल वर्मा रेणु की समग्र 'मानवीय दृष्टि ' का उल्लेख करते हुए समकलीन कथाकारों के बीच उन्हें संत की तरह उन्हें उपस्थित  बताते हुए कहते है -" बिहारी के छोटे भू-खंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियती रेखा को उजागर किया है। "
                     हिंदी कहानी की परम्परा में रेणु की महत्वता  को हिंदी कहानी के अधिकांश शिर्षथ कथाकार स्वीकारते है - डॉ. नामवर सिंह के बाद के आलोचकों में डॉ. शिवकुमार मिश्र का नाम  महत्वपूर्ण है।  वे अपने प्रसिद्ध निबंध 'प्रेमचंद की परम्परा और फणीश्वरनाथ रेणु ' में लिखते है - "हिंदी के उन कथाकारों में है जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए, कथा- साहित्य को एक लम्बे अरसे के बाद प्रेमचंद की उस परम्परा से फिर से जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केन्द्रिया के कारण भारत की आत्मा से कट गई थी। " इस प्रकार हम  पाते है की रेणु हिंदी के श्रेष्ठ कथाकारों की अगली पंक्ति में परिणित होते रहे है।  उनका महत्व आज निर्विवाद घोषित है।  
          रेणु हिंदी के ऐसे कथाकार है , जो मनुष्य के राग- विराग और प्रेम को दुःख और करुणा को , हास-उल्लास  और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर 'आत्मा के शिल्पी ' के रूप में उपस्थित होते है।  रेणु मनुष्य का चित्रण एक ठोस जमीन पर, एक काल विशेष में करते है।  पर स्थानीयता और भौगोलिक परिवेश और इतिहास की एक कलावध में साँस लेते हुए पात्र सार्वदेशिक और समकालीन जीवन के मर्म को भी उद्घाटित करते है।  कहा भी गया है  कि रेणु का महत्व सिर्फ आंचलिकता में नहीं अपितु उसके अत्तिक्रमण है।  
          रेणु मनुष्य कि लीलाओं का भाव- प्रवण चित्रण करते है।  उनका ध्यान इस पर ज्यादा क्यों है ? मनुष्य के पूरे संघर्षों उसके आपदा-विपदाओं, उसके दुःख दरिद्र के बीच ये लीलायें ही उस जीवन को आधार देती है उसे टूटने से बचाती है।  उसकी संघर्षशीलता को बढ़ाती है ।  जीवन और प्रकृति  की बारीक़  से बारीक़  रेखाओं  से निर्मित  ये कहानियां एक संगीत की तरह पाठकों के भीतर गूंजती रहती  है। उनकी कहानियां बदलते  ग्रामीण  जीवन के यथार्थ को एक नई भंगिमा के साथ उद्घाटित करती है। उनका कथाकार मन इस बदलते हुए परिवेश को चित्रित करता हुआ करुणा से आर्द्र दिखलाई देता है। जैसे :'रसप्रिया','आत्मसाक्षी' , 'विघटन के क्षण ' आदि।  
             रेणु की कहानियों का परिवेश  ग्राम जीवन से शहरी  जीवन तक  विस्तृत  है। उन्होंने  जिस  कूँची से धूसर, विरान,अंतहीन प्रांतर, के दुखी विपन जन- जीवन का चित्रण किया है। उसी से शहरी परिवेश की 'टेबुल' , 'विकट संकट','जलवा' , 'रेखाएं: वृत्त चक्र','अग्निखोर' जैसी  कहानियां  भी लिखी  है।  ये कहानियाँ इकहरी  नहीं है।इनमें मूल कथा के साथ उप-कथाएं जुडी होती  है एवं मुख्य पात्रों के साथ उनके  साथ जुड़े  अनेक  पात्रों  का जीवन एक साथ उजागर होता है। वे अपने पात्रों को पूरे परिदृश्य या 'लैंडस्केप' के बीच रखकर चित्रित करते  है।  
        रेणु की कहानियां  किसी  विचार  को केंद्रित कर नहीं बनी  है। अपितु ये सीधे - सीधे हमें जीवन में उतारती  है।  इसीलिए  इन  कहानियों से सरलीकृत  रूप में निष्कर्ष  निकलना  कठिन  है।  उनकी  कहानियों का परिवेश जाना- चिन्हा होते  हुए भी आकर्षित  करता  है।  इन  कहानियों को पढ़ते  वक्त  यह  लगता  है, कि यह  पहली  बार  घटित  हो  रहा  है।  कारण यह  कि परिवेश के निर्माण  में जो गंधवाही  चेतना  रंगों  एवं  ध्वनियों  का योग  है।  वह हम साधारण  जीवन में हम  अनुभव  नहीं कर पाते।  

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Sunday, 7 June 2020

शास्त्रवाद


शास्त्रवाद


क्लासिजम को हिंदी में शास्त्रवाद, शास्त्रियवाद , अभिजात्यवाद आदि नामों से जाना जाता है क्लासिजम  मूल्यतः लैटिन भाषा का शब्द है ।क्लासिकस शब्द का प्रयोग रोम में करदाताओं के सर्वोच्य वर्ग के लिए किया जाता था। क्लासिक साहित्य रचना का सम्बन्ध मूलतः क्लास या वर्ग विभाजन के इतिहास से है। दूसरी शताब्दी में लैटिन के लेखक 'ओलस जेलियस ' ने अपनी पुस्तक ' नॉक्टिस एटिस' में दो प्रकार के लेखकों का उल्लेख किया है। 
  • स्क्रिप्टर क्लासिक्स यानि सुसंस्कृत एवं अभिजातवादी या इलिट सोसाइटी के लिए लिखने वाला अभिजात्य लेखक ।
  • स्क्रिप्टर त्रोलेटेरियस  यानि जनसाधारण एवं असंस्कृत लोगों के लिए लिखने वाला जनवादी लेखक।

पहले प्रकार के साहित्य को उच्च वर्ग का संरक्षण प्राप्त होता था । यह साहित्य उच्च वर्ग की संस्कृति से सम्बंधित परमार्जित और शास्त्रबद्ध साहित्य होता था । ऐसे अभिजात्यवर्ग साहित्य की मूल्यवत: को मान्यता देने तथा उसका अनुकरण करने की प्रवृति के कारण ही इसका नाम अभिजात्यवाद पड़ा है ।
लेटिन भाषा साहित्य में रैननसा काल  (पुनर्जागरण) तक अभिजात्यवादी साहित्य को विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ा जाने वाला तथा साहित्यिक विद्वानों के पठन-पाठन का प्रमुख साहित्य माना जाता था। फलस्वरूप उस समय तक यूनान की प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियाँ ही अभिजातवादी समझी जाती थी
       क्लॉसिजम शब्द का एक प्रयोग ऐतिहासिक युग के अर्थ में भी किया गया । काफी समय तक यह धारणा बानी रही , कि कालजयी (जो हर समय जीवित रहे ) कृतियों कि रचना  (गोदान , महाभारत ) केवल ग्रीक एवं लेटिन में हुई है । अतः इस शब्द  का प्रयोग ऐतिहासिक श्रेणी के रूप में एक ऐसे युग के लिए भी किया जाता रहा है । जिसमे श्रेष्ठ या कालजयी साहित्य की रचना हुई हो । आरम्भ में प्राचीन ग्रीस और रोम की संस्कृति और इतिहास की अध्ययन की प्रवृति को तथा ग्रीक और लैटिन की रचनाओं एवं रचनाकारों के आदर्श का अनुकरण करने और उनके टक्कर की कृतियों के रचने की प्रवृति को भी क्लासिसिजम कहा गया हैं । वर्तमान  में इस शब्द से किसी वर्ग विशेष की कला अथवा साहित्य का बोध नहीं होता। किन्तु कल क्रम में कुछ विशेष प्रकार की कलात्मक और साहित्यिक प्रवृतियों तथा रचनाओं के लिए यह शब्द रूढ़ हो गया है । रोमन साहित्यकारों  ने अपने प्राचीन साहित्यकारों के वैभवपूर्ण उदात्त साहित्य को दृष्टि में रखकर कुछ मान्यताएं स्थापित की  थी :--- 
  • वर्त्तमान कल से पूर्वति साहित्यकार उत्थान के चरम को सपर्श कर चुके है।
  • अतः वर्तमान साहित्यकार का साहित्यिक दायित्व  है की उन्ही पूर्वति साहित्यकारों का अनुकरण करें।
  • साहित्यिक अनुकरण में उन प्राचीन कृतियों के शिल्पानुशासन का पूर्णतः पालन किया जाना चाहिए।

इस  प्रकार ग्रीक और रोम में होरेस , बोकेशियो , सिसरो , डिमेट्रियस आदि ने ग्रीक रचनाओं का अनुकरण किआ और क्लासिक परम्परा का विस्तार किया।  पश्चिम में क्लॉसिजम की पद्धति के कालजयी श्रेष्ट कृतियों के अनुकरण तथा शस्त्रवीहित सिद्धांतो के श्रद्धापूर्वक अनुकरण के आग्रह के साथ सामने आई।   क्लॉसिजम की शुरुआत ईसा पूर्व पहली शताब्दी में एक दम स्पष्ट हो चुका था।  ईसा  की पांचवी शताब्दी तक साहित्य चिंतन में इसका कुछ न कुछ प्रभाव बना  रहा।  संस्कृत के श्रेष्ट साहित्य के लिए क्लासिकल लिटरेचर पद का प्रयोग भी लगभग इसी अर्थ में हुआ हैं।  साहित्य चिंतन के साथ क्लॉसिजम पद का प्रयोग विशेष युग  और उसके द्वारा रचित साहित्य के अर्थ में सीमित न रहकर सर्वकालिक और सार्वभौमिक हो गया।  मध्ययुगीन यूरोप, फ्रांस तथा इटली के आलोचक इस परम्परा के हिमायती रहे। शास्त्रवाद को अनेक पाश्चात्य विद्वानों जैसे :शिलर,मैथ्यू अर्नाल्ड,एबर क्राम्बी, इलियट आदि ने अपने अपने अनुकूल और समुचित रूप से परिभाषित किया है।  इन सभी का निष्कर्ष इस प्रकार है।

  • भव्य विचार अवं लोक कल्याण की भावना तथा मानव जीवन की शाश्वत समस्याओं का प्रस्तुतिकरण अभिजात्यवादी सहित का मुख्य कथ्य है।
  • कवि के व्यक्तित्व अवं अनुभूति के चित्रण के स्थान पर वस्तुनिष्ठ कथ्य के प्रस्तुतीकरण पर बल दिया जाता है।
  • प्राचीन आचार्यों के अनुकरण से काव्य सिद्धि की प्राप्ति तथा परपंरा का निर्वाह होता है।
  • उदात्त भाषा शैली का प्रयोग करते हुए शैलीगत परिमार्जन को कथ्य से भी प्राथमिकता मिलनी चाहिए। 
  • विषय तथा रूप के समुचित संतुलन का निर्वाह करना चाहिए। 
  • भावनाओं की अराजकता (लापरवाही ) को व्यवस्थित करके शैली में कठोर संयम का पालन करना चाहिए। 


🔖3form of the Verb🔖

📖   THREE FORMS OF THE VERB 📖 V1 (Main verb) V2 V3 Begin Began Begun ...