Friday, 12 June 2020

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी कला


  फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी कला


हिंदी कहानी अपनी विकास यात्रा की कई मंजिलें तय कर
चुकी है - इंशा अल्लाह  की कहानी (रानी केतकी की कहानी) से लेकर उदय प्रकाश की (तिरिछ) तक।  अपने प्रारंभिक दौर में ही प्रेमचंद जैसे प्रतिभाशाली कथा शिल्पी मिलें , जिसके कारन हिंदी कहानी एक शिखर तक पहुंची।  प्रेमचंद ने वैविध्यपूर्ण कथा क्षेत्रों का पहली बार उद्घाटन अपनी कहानियों में किया साथ ही शिल्प के अनेक प्रयोग भी किये।  प्रेमचंद के परवर्ती कथाकारों जैनेन्द्र , अज्ञेय , यशपाल आदि ने उसे नए आयाम दिए पर प्रेमचंद की परम्परा से हटकर सूक्ष्म ऐन्द्रिकता  और कलात्मकता के साथ कथाकार हिंदी कहानी के नागरिक जीवन की बारीकियों के उद्धगाता  हुए। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानियों के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को पहली  बार एक नई पहचान और भंगिमा दी।  रेणु , प्रेमचंद , जैनेन्द्र ,अज्ञेय और यशपाल की  पीढ़ी तथा स्वतंत्रोत्तर कथा पीढ़ी जिसे नई कहानी आंदोलन का जन्मदाता कहा  जाता  है  की संद्धिकाल  में  उभरे  कथाकार  है ।  इसीलिए  उनकी  समवयस्कता  कभी   अज्ञेय , कभी  यशपाल के साथ तो  कभी  नई कहानी के कथाकारों  के साथ  घोषित  की जाती  रही  है ।
      रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास  मैला  आँचल  का प्रकाशन  अगस्त  1954 में  था  और इसके  ठीक  10 वर्ष  पूर्व  अगस्त  1944 में  उनकी  पहली कहानी 'बटबाबा'  साप्ताहिक  'विश्वमित्र' कलकत्ता  में छपी  थी ।  यानि  रेणु की कहानी मैला  आँचल  के प्रकाशन  के 10 वर्ष  पहले  से  ही  छपने   लगी  थी । 5वें  दशक  में  उनकी  अनेक  महत्वपूर्ण  कहानियां  प्रकशित  हुई । 'मैला आँचल ' और 'परती - परिकथा' की अपार  लोकप्रियता  और दोनों  उपन्यासों  पर  प्रारम्भ  से  ही  उत्त्पन  विवादों  और बहसों  के बीच  रेणु की कहानियों का अपेक्षित  मूल्यांकन नहीं  हो पाया।रेणु की कहानियां अपनी बुनावट या संरचना स्वभाव यह प्रकृति शिल्प और स्वाद से हिंदी कहानी की परंपरा से एक अलग और नई पहचान लेकर उपस्थित है।  अतः एक नई कथा धारा प्रारंभ इनसे होता है।  रेणु की कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न है।  उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से इसीलिए रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नए सौंदर्य शास्त्र को निर्मित करने की आवश्यकता है। 
        रेणु अपनी कहानियों में स्थानीय रंग को विभूषित करते है।  इसीलिए प्रेमचंद के द्वारा रेशे - रेशे को उकेरा गया भारतीय ग्राम समाज  रेणु  की कलम  से पंचलैट कहानी के प्राणवंत और नए आयाम ग्रहण करता हुआ दिखता है। 
         स्वतंत्रोत्तर हिंदी कहानी के दौर में जिसे नई कहानी  के आंदोलन के नाम से जाना जाता है , ग्राम कथा बनाम नगर कथा को लेकर तीखे विवाद चलें।  रेणु इन तमाम विवादों से परे रहकर  कहानी लिख रहे थे।  इसीलिए उनकी कहानियों की ओर दृष्टि बहुत बाद में गई है।  पहली बार ' कहानी ' पत्रिका के 1956  के विशेषांक में डॉ. नामवर सिंह ने अपने लेख में रेणु का उल्लेख किया।  नामवर  सिंह - "निसंदेह  इन विभिन्न अंचलों और  जनपदों के लोक जीवन को लेकर लिखी  गई कहानियों में ताजगी है।  प्रेमचंद की गांव  पर लिखी कहानियों में एक हद तक  नवीनता थी।फणीश्वरनाथ रेणु , मारकंडे , केशव मिश्र , शिवप्रसाद सिंह की कहानियों से इस दिशा में आशा बनती दिखाई दे रही है।" नई कहानी आंदोलन  के कथाकारों ने बाद में रेणु को श्रेष्ठ सिद्ध  किया।  वे हैं - राजेंद्र यादव , निर्मल वर्मा , भीष्म साहनी, कमलेश्वर आदि।  रेणु के एक दशक पूर्व साहित्य में आये महत्वपूर्ण कलाकार यशपाल और अज्ञेय ने रेणु को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में रेखांकित किया।  कमलेश्वर ने रेणु की महत्वता को इन शब्दों में प्रतिपादित किया - "बीसवीं सदी का यह संजय रूप , गंध , स्वर , नाद , आकार , और बिम्बों के माध्यम से 'महाभारत ' की सारी वास्तविकता सत्य , घृणा , हिंसा , प्रमाद , आक्रोश और दुर्घटना बयान करता जा रहा है। उसके ऊँचें माथे पर महर्षि वेदव्यास  का आशीष  अंकित  है। " अज्ञेय ने उन्हें 'धरती का धनी' कहा है।  निर्मल वर्मा रेणु की समग्र 'मानवीय दृष्टि ' का उल्लेख करते हुए समकलीन कथाकारों के बीच उन्हें संत की तरह उन्हें उपस्थित  बताते हुए कहते है -" बिहारी के छोटे भू-खंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियती रेखा को उजागर किया है। "
                     हिंदी कहानी की परम्परा में रेणु की महत्वता  को हिंदी कहानी के अधिकांश शिर्षथ कथाकार स्वीकारते है - डॉ. नामवर सिंह के बाद के आलोचकों में डॉ. शिवकुमार मिश्र का नाम  महत्वपूर्ण है।  वे अपने प्रसिद्ध निबंध 'प्रेमचंद की परम्परा और फणीश्वरनाथ रेणु ' में लिखते है - "हिंदी के उन कथाकारों में है जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए, कथा- साहित्य को एक लम्बे अरसे के बाद प्रेमचंद की उस परम्परा से फिर से जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केन्द्रिया के कारण भारत की आत्मा से कट गई थी। " इस प्रकार हम  पाते है की रेणु हिंदी के श्रेष्ठ कथाकारों की अगली पंक्ति में परिणित होते रहे है।  उनका महत्व आज निर्विवाद घोषित है।  
          रेणु हिंदी के ऐसे कथाकार है , जो मनुष्य के राग- विराग और प्रेम को दुःख और करुणा को , हास-उल्लास  और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर 'आत्मा के शिल्पी ' के रूप में उपस्थित होते है।  रेणु मनुष्य का चित्रण एक ठोस जमीन पर, एक काल विशेष में करते है।  पर स्थानीयता और भौगोलिक परिवेश और इतिहास की एक कलावध में साँस लेते हुए पात्र सार्वदेशिक और समकालीन जीवन के मर्म को भी उद्घाटित करते है।  कहा भी गया है  कि रेणु का महत्व सिर्फ आंचलिकता में नहीं अपितु उसके अत्तिक्रमण है।  
          रेणु मनुष्य कि लीलाओं का भाव- प्रवण चित्रण करते है।  उनका ध्यान इस पर ज्यादा क्यों है ? मनुष्य के पूरे संघर्षों उसके आपदा-विपदाओं, उसके दुःख दरिद्र के बीच ये लीलायें ही उस जीवन को आधार देती है उसे टूटने से बचाती है।  उसकी संघर्षशीलता को बढ़ाती है ।  जीवन और प्रकृति  की बारीक़  से बारीक़  रेखाओं  से निर्मित  ये कहानियां एक संगीत की तरह पाठकों के भीतर गूंजती रहती  है। उनकी कहानियां बदलते  ग्रामीण  जीवन के यथार्थ को एक नई भंगिमा के साथ उद्घाटित करती है। उनका कथाकार मन इस बदलते हुए परिवेश को चित्रित करता हुआ करुणा से आर्द्र दिखलाई देता है। जैसे :'रसप्रिया','आत्मसाक्षी' , 'विघटन के क्षण ' आदि।  
             रेणु की कहानियों का परिवेश  ग्राम जीवन से शहरी  जीवन तक  विस्तृत  है। उन्होंने  जिस  कूँची से धूसर, विरान,अंतहीन प्रांतर, के दुखी विपन जन- जीवन का चित्रण किया है। उसी से शहरी परिवेश की 'टेबुल' , 'विकट संकट','जलवा' , 'रेखाएं: वृत्त चक्र','अग्निखोर' जैसी  कहानियां  भी लिखी  है।  ये कहानियाँ इकहरी  नहीं है।इनमें मूल कथा के साथ उप-कथाएं जुडी होती  है एवं मुख्य पात्रों के साथ उनके  साथ जुड़े  अनेक  पात्रों  का जीवन एक साथ उजागर होता है। वे अपने पात्रों को पूरे परिदृश्य या 'लैंडस्केप' के बीच रखकर चित्रित करते  है।  
        रेणु की कहानियां  किसी  विचार  को केंद्रित कर नहीं बनी  है। अपितु ये सीधे - सीधे हमें जीवन में उतारती  है।  इसीलिए  इन  कहानियों से सरलीकृत  रूप में निष्कर्ष  निकलना  कठिन  है।  उनकी  कहानियों का परिवेश जाना- चिन्हा होते  हुए भी आकर्षित  करता  है।  इन  कहानियों को पढ़ते  वक्त  यह  लगता  है, कि यह  पहली  बार  घटित  हो  रहा  है।  कारण यह  कि परिवेश के निर्माण  में जो गंधवाही  चेतना  रंगों  एवं  ध्वनियों  का योग  है।  वह हम साधारण  जीवन में हम  अनुभव  नहीं कर पाते।  

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Sunday, 7 June 2020

शास्त्रवाद


शास्त्रवाद


क्लासिजम को हिंदी में शास्त्रवाद, शास्त्रियवाद , अभिजात्यवाद आदि नामों से जाना जाता है क्लासिजम  मूल्यतः लैटिन भाषा का शब्द है ।क्लासिकस शब्द का प्रयोग रोम में करदाताओं के सर्वोच्य वर्ग के लिए किया जाता था। क्लासिक साहित्य रचना का सम्बन्ध मूलतः क्लास या वर्ग विभाजन के इतिहास से है। दूसरी शताब्दी में लैटिन के लेखक 'ओलस जेलियस ' ने अपनी पुस्तक ' नॉक्टिस एटिस' में दो प्रकार के लेखकों का उल्लेख किया है। 
  • स्क्रिप्टर क्लासिक्स यानि सुसंस्कृत एवं अभिजातवादी या इलिट सोसाइटी के लिए लिखने वाला अभिजात्य लेखक ।
  • स्क्रिप्टर त्रोलेटेरियस  यानि जनसाधारण एवं असंस्कृत लोगों के लिए लिखने वाला जनवादी लेखक।

पहले प्रकार के साहित्य को उच्च वर्ग का संरक्षण प्राप्त होता था । यह साहित्य उच्च वर्ग की संस्कृति से सम्बंधित परमार्जित और शास्त्रबद्ध साहित्य होता था । ऐसे अभिजात्यवर्ग साहित्य की मूल्यवत: को मान्यता देने तथा उसका अनुकरण करने की प्रवृति के कारण ही इसका नाम अभिजात्यवाद पड़ा है ।
लेटिन भाषा साहित्य में रैननसा काल  (पुनर्जागरण) तक अभिजात्यवादी साहित्य को विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ा जाने वाला तथा साहित्यिक विद्वानों के पठन-पाठन का प्रमुख साहित्य माना जाता था। फलस्वरूप उस समय तक यूनान की प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियाँ ही अभिजातवादी समझी जाती थी
       क्लॉसिजम शब्द का एक प्रयोग ऐतिहासिक युग के अर्थ में भी किया गया । काफी समय तक यह धारणा बानी रही , कि कालजयी (जो हर समय जीवित रहे ) कृतियों कि रचना  (गोदान , महाभारत ) केवल ग्रीक एवं लेटिन में हुई है । अतः इस शब्द  का प्रयोग ऐतिहासिक श्रेणी के रूप में एक ऐसे युग के लिए भी किया जाता रहा है । जिसमे श्रेष्ठ या कालजयी साहित्य की रचना हुई हो । आरम्भ में प्राचीन ग्रीस और रोम की संस्कृति और इतिहास की अध्ययन की प्रवृति को तथा ग्रीक और लैटिन की रचनाओं एवं रचनाकारों के आदर्श का अनुकरण करने और उनके टक्कर की कृतियों के रचने की प्रवृति को भी क्लासिसिजम कहा गया हैं । वर्तमान  में इस शब्द से किसी वर्ग विशेष की कला अथवा साहित्य का बोध नहीं होता। किन्तु कल क्रम में कुछ विशेष प्रकार की कलात्मक और साहित्यिक प्रवृतियों तथा रचनाओं के लिए यह शब्द रूढ़ हो गया है । रोमन साहित्यकारों  ने अपने प्राचीन साहित्यकारों के वैभवपूर्ण उदात्त साहित्य को दृष्टि में रखकर कुछ मान्यताएं स्थापित की  थी :--- 
  • वर्त्तमान कल से पूर्वति साहित्यकार उत्थान के चरम को सपर्श कर चुके है।
  • अतः वर्तमान साहित्यकार का साहित्यिक दायित्व  है की उन्ही पूर्वति साहित्यकारों का अनुकरण करें।
  • साहित्यिक अनुकरण में उन प्राचीन कृतियों के शिल्पानुशासन का पूर्णतः पालन किया जाना चाहिए।

इस  प्रकार ग्रीक और रोम में होरेस , बोकेशियो , सिसरो , डिमेट्रियस आदि ने ग्रीक रचनाओं का अनुकरण किआ और क्लासिक परम्परा का विस्तार किया।  पश्चिम में क्लॉसिजम की पद्धति के कालजयी श्रेष्ट कृतियों के अनुकरण तथा शस्त्रवीहित सिद्धांतो के श्रद्धापूर्वक अनुकरण के आग्रह के साथ सामने आई।   क्लॉसिजम की शुरुआत ईसा पूर्व पहली शताब्दी में एक दम स्पष्ट हो चुका था।  ईसा  की पांचवी शताब्दी तक साहित्य चिंतन में इसका कुछ न कुछ प्रभाव बना  रहा।  संस्कृत के श्रेष्ट साहित्य के लिए क्लासिकल लिटरेचर पद का प्रयोग भी लगभग इसी अर्थ में हुआ हैं।  साहित्य चिंतन के साथ क्लॉसिजम पद का प्रयोग विशेष युग  और उसके द्वारा रचित साहित्य के अर्थ में सीमित न रहकर सर्वकालिक और सार्वभौमिक हो गया।  मध्ययुगीन यूरोप, फ्रांस तथा इटली के आलोचक इस परम्परा के हिमायती रहे। शास्त्रवाद को अनेक पाश्चात्य विद्वानों जैसे :शिलर,मैथ्यू अर्नाल्ड,एबर क्राम्बी, इलियट आदि ने अपने अपने अनुकूल और समुचित रूप से परिभाषित किया है।  इन सभी का निष्कर्ष इस प्रकार है।

  • भव्य विचार अवं लोक कल्याण की भावना तथा मानव जीवन की शाश्वत समस्याओं का प्रस्तुतिकरण अभिजात्यवादी सहित का मुख्य कथ्य है।
  • कवि के व्यक्तित्व अवं अनुभूति के चित्रण के स्थान पर वस्तुनिष्ठ कथ्य के प्रस्तुतीकरण पर बल दिया जाता है।
  • प्राचीन आचार्यों के अनुकरण से काव्य सिद्धि की प्राप्ति तथा परपंरा का निर्वाह होता है।
  • उदात्त भाषा शैली का प्रयोग करते हुए शैलीगत परिमार्जन को कथ्य से भी प्राथमिकता मिलनी चाहिए। 
  • विषय तथा रूप के समुचित संतुलन का निर्वाह करना चाहिए। 
  • भावनाओं की अराजकता (लापरवाही ) को व्यवस्थित करके शैली में कठोर संयम का पालन करना चाहिए। 


🔖3form of the Verb🔖

📖   THREE FORMS OF THE VERB 📖 V1 (Main verb) V2 V3 Begin Began Begun ...